Thursday 1 June 2023

क्यों होती हैं रातें

जब भी लिखा, रात की पढ़ाई के कोटे को आधा या पूरा का पूरा करके लिखा। 

2 बज गए, सुबह 5 बजे उठकर तैयार होकर 6 बजे तक कॉलेज के लिए निकल जाना था, पेपर ठीक 7:30 में शुरू हो जाते हैं। सो सोचा कि अब सोने की कोशिश की जाए, मालूम है की बमुश्किल 2 या 2.5 घंटे की नींद ही नसीब होती पर मन को तसल्ली रहती की 3 घंटा पहले सोने चले गए थे। दैट शूल्ड डू। 

पर सर को बिस्तर पर रखते ही, तन की सारी मायूसी, मन की सारी उदासी चादर की तरह देह से लिपटती चली गई। लगा की कोई साथ होना चाहिए था जो इस चादर को मेरे देह पर से हटा दे इससे पहले ये मेरे मुंह से खुद को लपेटे मुझे asphyxiate कर दे, मानी, मेरा दम घोट दे। 

हाथ आगे बढ़ाया, फोन खोला, सोचा की क्या कहेंगे की आखिर क्या हुआ, स्क्रॉल किया और मालूम हुआ कि कोई ऐसा नहीं जिससे उदासी बांट लें, जिसके उंगलियों को अपने माथे तक जाने की अनुमति दे दें, जिसके सीने पर सर रखें पर कुछ कहें नहीं, उसकी धड़कन को समझा बुझा लेने दें खुद को। 

तब याद आया की यही अकेलापन था जो हाथों को खींच कर यहां लाया था। इस ब्लॉग तक। तो आज फिर वही किया, खुद को यहां ले आए। सुपुर्द कर दिए कीबोर्ड को खुद को, की वो अपने हिसाब से लिखवा ले जो भी दिल में आए। शब्दों को न ढूंढे, बस बात बांट लें, मानो रात के आने के पीछे का कारण बातों का बांटा जाना हो। 
आज क्या हुआ? दो बहुत ही बलवान, बुद्धिजीवी, सज्जन और सेल्फ_लेस लोग की आपसी मतभेद हो गई, मतभेद केवल उत्तक सीमित था पर उसका प्रभाव आस पास की आबादी पर मुठभेड़ के मानक पड़ी। 

Thursday 20 December 2018

कमरा

हम जो लिखना चाहते हैं, वो ये नही है। वो न तो कोई कहानी है न प्रसंग है। अगर कुछ है तो बस व्यथा है उस आदमी की जो एक अँधरे कमरे में फँस गया है और छू कर देख रहा है दीवार की सतह को, खोज रहा है कोई किवाड़ या खिड़की या फिर कोई छेद ही हो जिसे चूहों ने बनाई होगी; पर न आँखों को कुछ नज़र आ रहा होगा, न उसके हाथ ही कुछ देख पा रहे होंगे। अगर कमरे में कोई और होता, जो बिना रोशनी के देख सकने की क्षमता रखता, तो उसे मकड़ी समझ लेता। ख़ैर वहाँ उस आदमी के सिवा बस सन्नाटा है, और ऊँघता हुआ बासी अँधेरा। उसे एक आवाज़ सुनाई दे रही है अब, 'वाइट नॉइज़', उसने कई बार सोने के लिए इसे सुना है, पर ये उसे सुला नही पाती थी, पता नहीं क्यों इन्हें सुनकर उसपर उल्टा प्रभाव पड़ता था,  उसे और भी कई आवाज़ें सुनाई देने लगती थी, मानो परत दर परत वो हर फ्रीक्वेंसी को अलग कर दे रहा हो और एक-एक कर उन्हें अलग से सुनकर एनालाइज़ कर रहा हो। पर आज कुछ फेर बदल है इसमें, सारी की सारी परत आपस में मिलकर इतनी इंटेंसिफ़ाइड हो गई हैं कि मानो कभी इनका शोर बंद ही न हो। अब ये उसे चुभ रही हैं। वो यहाँ से निकलना चाहता है। अँधेरा उसे रास नहीं आ रहा। उसके कदमों की चाल अब बदल रही, पेस पकड़ रहीं है। वो भाग रहा है अब, दीवारों पर जवाब तलाश रहा है, जवाब उस सवाल का जो किसी ने उससे कभी पूछा ही नहीं।


बदहवास यूँ भागते हुए उसे काफ़ी वक़्त हो चुका हैं, उसे अब भूख-प्यास नहीं लगती, वो थकता नहीं, बस कभी-कभी रुक जाता है। रुक जाता है उसके साथ फिर वो सारा कमरा और हो जाती है अचानक बहुत रोशनी, बजने लगती है एक धुन, और जैसे ही उसे लगता है कि बस अब वो पागल हो जाएगा, उसका अँधेरा लौट आता था। रोशनी जो सफ़ेद थी, काली हो जाती है, धुन चुप्पी बन जाती है। इन सब के बीच जैसे ही एक दरवाज़े के हैंडल से उसकी स्लीव फँस जाती है, वो फिरसे भागने लग जाता है। दरवाज़ा एक भ्रम है, उसे यकीन हो गया है। वो यहाँ से निकलना नहीं चाहता अब। वो जवाब ढूंढ रहा है। उसे सवाल तक पहुँचना है। वो गुत्थी ही उसकी सारी मुसीबतों को सुलझा सकती है। कभी कभी उसे लगता है कि जो धुन बीच-बीच में बजती है, अगर वो उसके बोल तक पहुँच जाए तो वो सारा माजरा समझ जाएगा। दुनिया के जितने भी रहस्य है, वो उन सबके तह तक पहुँच जाएगा। पर ये बोल भी उसके साथ कोई खेल कर रहे हैं। वो जितनी ध्यान से उन दो पलों में उसे सुनता, वो उतने और कॉम्प्लेक्स हो जाते । कभी तो उसे लगता कि बस एक और सेकंड सुनने पर उसे सब समझ आ जायेगा लेकिन तभी ही सब पहले जैसा हो जाता। वापस वही अँधेरा। वही चुप्पी। 


इस कमरे से उसका एक अलग संबंध बन चुका है अब, इसके सिवा उसे कुछ भी याद नहीं। इस कमरे में आने से पहले का कुछ अगर उसे याद है तो वो है काजल, जो उसने किसी को एक नीले डिब्बे से निकालकर अपनी कान के पीछे लगाते देखा था और बस देखते रह गया था। तबसे से लेकर अबतक तक उसे और कुछ याद नहीं। वो यहाँ कैसे आया, कबसे है, इत्यादि कुछ ऐसे सवाल थे जिनके  जवाब न उसके पास थे न जिनके बारे में जानने की कोई ख़ास दिलचस्पी। अब वो अँधेरे की भाषा समझने लगा है, अँधेरे को समझने लगा है। उससे जुड़ी छोटी-बड़ी बातों का बोध उसे हो चला है। उसे मालुम है कि ये अँधेरा अपने हर ठिकाने से थोड़ा-थोड़ा रिसकर उस तक आया है उसके ख़ालीपन को भरने के लिए। ये अँधेरा ही है जो हर जगह जा भी सकता है और हर जगह से वापस आ भी सकता है। इसे सबकी ख़बर है, पर सब इसकी ख़बर नहीं रख सकते। रोशनी तो बस एक संयोग है। एक ऐसा संयोग जिसकी सबको आदत हो गयी है। ओवर रेटेड है वो। पर वो समझ चुका है कि ये कालापन ही है जो उसका है। इसी कालेपन में अक्सर वो  ख़ुदको निकालकर हर तरफ पसार चुका था। एक-एक कर वो अपने हर हिस्से को छू छा कर देखता और समझता उनके दुःख को। घंटों उनसे बात करते हुए, हर तक़लीफ़ पर लगाता आहिस्ते से मरहम और जब उसे आश्वाशन हो जाता की वो हिस्सा अब पहले से बेहतर है, वो उभर चुके हैं अपने दर्द से, तो धीरे  से उन्हें लुढ़का देता है ज़मीन पर। लुढ़कते हुए ये हिस्से हिरन बनकर दौड़ने लगते उसकी तरह दिवार के सीध में।  अँधेरे सी उसकी कोई संधि है , वो ये बात जानता है।  अँधेरे का जो टुकड़ा इस कमरे में उसके पास है वो उससे अपने हिसाब से मोल लेता है अब।  वो जानता है कि जिस पल वो चाह के हाथ आगे बढ़ाएगा, ये कालापन उसके हाथ को अपने हाथ में ले लेगा। शायद इस अँधेरे में उसका रिस जाना ही जवाब है, और अँधेरे के किसी दूसरे टुकड़े में वो सवाल उसे ढूंढ रहा है।         

वो बुनने लगता है कहानियाँ इंतज़ार में उस एक पल के जब वो ख़त्म हो चुका होगा। उसे अब न धुन की परवाह है न रोशनी की। उसे यहाँ से जाने का रास्ता मिल गया है। वो पढ़ रहा है मन ही मन कोई अपनी लिखी कहानी जब आती है उसे किसी के चप्पल के घिसने की आवाज़। वो कमरे के बीचों बीच बैठा हुआ है। आवाज़ दीवारों की ओर हो रही है। वो उठकर जाता है उस तरफ और टटोल रहा होता है अँधेरे को जब उसके हाथ पड़ते है एक कँधे पर। वो चौंक कर हाथ हटा लेता है। सामने वाला आदमी भी वहीं रुक जाता है। बहुत देर तक कोई कुछ नहीं बोलता। जो नया आया है, वो दूसरी ओर खड़ा है। काफ़ी देर तक कमरे में कोई कोना न मिलने पर उसे समझ आया कि ये गोल है। उसके पास सवाल हैं पर वो डर के कारण पूछ नहीं पा रहा। कोई जवाब उसे मिल भी नहीं पाता। बिना बोले ही दोनों जानते है कि वे कैद हैं। यहाँ न कोई रास्ता आता है न कोई मंज़िल यहाँ से पाई जा सकती। दूसरे आदमी के साथ वो सब कुछ नहीं हुआ जो इसके साथ हुआ था। वो बस यूँ ही  बैठे-बैठे हँसने लगता है। इसने न वजह पूछी न उसने बताई। पर ये बताना चाहता भी नहीं। ये जब घंटो तक हँस लेता है तो सोचता है कि काश उसने वो चहरा भी देख लिया होता जिसको नज़र से बचाने के लिए वो काला टीका लगाया जा रहा था।

Thursday 16 August 2018

The Crack

Hopped up on my 12:43 Metro Train,
in the tunnel just before my station,
I see a caged bulb placed on its wall.
The cracks around it, runs quite deep, 
and has its edges smothered by pain
the pain of witnessing countless faces
pass by 
and not knowing what happens to them.
The pain of not knowing how the faces
shine when the ray of sun falls on them.
The pain of being so still that it didn't realize
what actually happened when time had
seeped through its polished surface smoothly
at first
creating fissures and breaking the wall on its
way, it wanted to find what lay beneath the wall,
wished to feel its pulse, the way it could
sense the faint thud on a human flesh, just before
life perished once and for all. Let us call time T
for its running out from all of us. We are nearing the
T - X
oblivious to its strength, and its true intentions.
Time was never a healer, yes, it did make us
numb towards pain and heartbreaks, towards
sorrow and soul wrenching memories. It dulled
the memories, covered them with a translucent sheet
so that upon recalling, we can only trace the hazy
outlines
of a past we once lived, thrived and died in.
But the Wall, unaware of it all, confused to
its might, keeps looking at this thing which
wooshes past itself, with faces packed in it.
some, looking back towards it absentmindedly,
some waiting for the tunnel to end, and a few,
staring back
at it, with utter confusion, the same delusions
in the back of their head. The ones who are
trying to run away, from situations they are in,
praying to the mischievous God of Healers, T,
to take their pain away, these are the Faces at which
Time stares back too, bit frequently, through the
cracks.







Friday 20 April 2018

खिलौना

कमरा छोटा है... डार्क ऑरेंज रंग के पर्दे हवा की वजह से नाच रहे, थोड़ी रोशनी आ रही है  उनके खिड़की से हटने पर। फर्नीचर जो कि यूँ तो नॉन एक्सिस्टन्ट हैं,  धीरे-धीरे फ़ोकस में आ रहे हैं। एक स्लेटी रंग का स्टूल है जिसपे एक लैंप रखा है। उस लैंप से पीलिया फैल रहा है इस कोने से उस कोने तक।

कमरे के बीच में एक लकड़ी की कांफ्रेंस टेबल है जिसपे एक खिलौना रखा है, प्लास्टीक का, चटक हरे रंग का है। टेबल के इर्द-गिर्द छः कुर्सियाँ हैं, गद्दे वाली। एक किताब है, उसपे चाँद बना है, उससे गुलाब की खुशबू निकल कर टेबल के हर इक डेड सेल को ज़िंदा करने की जद्दोजहद कर रही है।

एक काले शर्ट वाला आदमी पहली कुर्सी पर आ कर बैठ गया है। परेशान है। उँगलियों के बीच सस्ती सी सिग्रेट है। उसके मुँह से बदबू आ रही परसों पीये हुए शराब की। शायद उसने अब तक वही शर्ट पहनी है जिसपे दो घुट गिर गए थे,जब उसके हाँथों से बोतल गिर कर टूटने वाली थी। उसके जीन्स पर मिट्टी की परत है। वो सड़क पर लेट गया होगा पर सामने से कोई गाड़ी आई नहीं होगी। कोई टेम्पो वाला उसे कुचल कर गायब न हो सका। सैड!

खिलौनें में चाभी है, घुमाने पर वक़्त बताती है। आदमी चाभी घुमाता है। खिलौना कहता है "द टाईम इज़ फॉरटी फाइव हॉर्स थ्री सेकण्ड्स।" आदमी सिरियस हो जाता है। पाँच जनें धरल्ले से कमरे में घुसते हैं। उनके चेहरे पे अजीब से दाग हैं, एकदम घिनौने से, वे कभी सुंदर नहीं कहलाएँ होंगे, उनकी कुरूपता को मद्देनज़र रखते हुए उनके हुलिये की बात नहीं होगी। वो सब बैठ जाते हैं।

वो सारे उस आदमी को समाज के नियम याद करवा रहे हैं। एक-एक वो दोहरा रहा। उसके हाँथों में निशान है। शायद जल गए थे जब वो दुनियाँ में आग लगा रहा था अपनी स्याही उड़ेलकर। पर फिर एक दिन एक लड़की आ गयी। और उसके झुमके में टंगी घुंगरू, जिसमें बर्बादी रहती थी, उसके ज़िन्दगी में गिर गई। तबसे उसके हाँथ जल जाते है। वो उस लड़की को भूलना चाहता है। पर वो लड़की है सबसे बेहूदी किस्म की। वो तमाम प्रपंच करने पे बहुत याद आती है। और नहीं करने पर वो ख़ुदको उसकी गोद में पाता है। वो साक्षात चुड़ैल ही है समझो; पर उसकी हँसी बहुत प्यारी है, तो बस वो उससे प्यार करता है।

वो अब ज़ोन आउट कर रहा है। उसके सामने बैठे मनहूस लोग उससे कह रहे हैं उनकी बातें सुनने को। वो सुन रहा है। पर ध्यान नहीं दे रहा। (ही चकल्स।) वो फिर चाभी घुमाता है। घड़ी के अनुसार चार साल बीत गए हैं। अब वो उस क्लॉस्ट्रोफिबक गड्ढे से बाहर निकल रहा है। उसे भूख लगी है। समाज की सुन सब समझने के बाद वो निर्णय ले चुका है अपने आने वाले सुनहरे भविष्य का।  वो सीधा उस लड़की के घर जाएगा। उसकी हाँथों की रेखाओं को कहेगा कि उसके लिए कोई नाइ बर्बादी पकाएँ। तब तक वो बिठाएगा उसे अपने सामने और घंटों तक रोता रहेगा बिना आँसुओं के। फिर पीयेगा ज़हर उस लड़की की लकीरों के कहने पर। और फिर ज़िंदा हो जाएगा।

कमरे में फैली हुई पीली लाईट को लैंप वापस सोख रही है। पर्दा ख़ुदको अलाइन कर रहा। खिलौने की चाभी घुमती है  रिवर्स में अपने आप और लड़की जग जाती है। चादर को छू कर देखती है, गीली है। उसने पंखा नहीं चलाया होगा। वो ख़ुद को कहती है कि "जो देखा था बस नाइटमेयर था।" हालाँकि बिस्तर के नीचे कुछ जॉइंट्स पड़े है पर उसने तो हैल्युसिनेट किया ही नहीं कभी। वो आदमी उसके बगल में सो रहा है।कितना प्यारा लग रहा है। वो उससे प्यार करती है। पर वो उसे मार देगी एक दिन। वो आदमी तभी खुश रह सकेगा।

Saturday 18 November 2017

पत्थर की रूह

हम हर दिन हवा में एक पत्थर उछालते हैं पूरा दम लगाकर। पत्थर नीचे गिर जाता है। उसकी रूह मगर हवा में तैरने लगती है। पत्थर इन्विज़िबल है पर उसकी जो रूह है वो है नारंगी रंग की। जब सूरज डूबने लगता है तो मेरे प्यारे पत्थर की रूह सूरज से लिपट जाती है। दुनिया के काली नज़र से चाँद पर धब्बे पड़ चुके हैं, ये उसे पता है। इसलिए वो अकेले सूरज को बचाना चाहती है अपने बल बूते पर।
वो नीचे आती है फिर, यहाँ ही, मिट्टी में मिलने। पर इस दफ़ा उसका रंग पता है, स्याह हो जाता है, आख़िर सबकी बुरी नज़र वो ख़ुदको लगवा लेती है। काला टीका कहीं की। वो थक जाती है इतना सब कुछ कर के। तो फिर मेरी खिड़की पर आकर शीशे से टकराने लगती है। हम समझ जाते हैं। हम दोनों का कोई पुराना रिश्ता था शायद। हम खिड़की खोल देते हैं। वो खिखियाते हुए बगल की कुर्सी पर पसर जाती है। पगलेठ।
हम बनाते हैं फिर एक कप चाय उसके लिए और कॉफ़ी अपने लिए। बड़ी अजब बात है। बंदी चाय पी लेती है समहाऊ! हम उसको फीमेल मान रहे हैं काहेकि सब से लड़कर खुद सब बर्दाश्त कर लेने वाली खूबी अक्सर 'फी द् मेल्स' में ही देखने को मिलती है। आदमी लोग भी क्यूट होते हैं यार। हाँजी, लेट्स नॉट डिवीएट! फिर चाय वाय पी कर वो खिड़की से बाहर मारती है छलाँग शून्य में लेकिन गधी फिर इत्ती वेलॉसिटी से टकड़ाती है नीचे गिरे पत्थर से की उसमें समाहित हो जाती है।
फिर से दिन ढलने पर होता है। फिरसे हम नंगे पाओं बीच रोड टहल रहे होते हैं। फिर मेरे पाओं में कुछ चुभता है। फिर हम वो इनिविज़िबल कंकड़ हवा में उछालते हैं और मेरे सर पर वो ढेला बनकर गिर जाता है। और मेरा दिमाग ठिकाने आ जाता है और हम पागलों वाली बातें लिखना बंद कर देते हैं क्योंकि हम नहीं चाहते कि इस बाली उम्र में हमारे मत्थे कोई रोग मढ़ दिया जाए। हम शांति से कमरे के भीतर आकर फ़ोन चलाने लगते हैं। और स्क्रीन कभी नारंगी होता है, कभी स्याह, कभी सफ़ेद तो कभी फिर ग्रे। इट्स ऑल अबाउट द शेड्स बेबी!

Saturday 10 June 2017

तो बस यूँ हीं।

हमारी फ़्रेंडलिस्ट में आपको देश के ऑलमोस्ट हर कोने के रिप्रेजेंटेटिव मिल जाएँगे। फिर चाहे वो लेह हो या फिर सिक्किम। साउथ के भी हैं, और कश्मीरी भी है। नेपाली भी हैं तीन ठो! पर सबसे ज़्यादा उत्पात हमारे जीवन में  जो कहिये, इन यूपी वालों ने मचा रखा है। इतने तो बिहारी भी  हैपनिंग नही हैं हमारे जीवन में, जितने ये हैं। ऊपर से ये दिल्ली वाले तो हाय! क्या ही ख़ूब हैं। 

कोई ख़ास मतलब नही है इस पोस्ट का पर क्या करें। हम भोलेनाथ के भक्त हैं और इंडिया इस अ डाइवर्स कंट्री, जहाँ सबकी रिस्पेक्ट होती है।ठीक वैसे ही जैसे मोर आजीवन "वहमचारी" बनकर रहते हैं। हमें लगता है हम थोड़े लेट हो गए हैं और ये जोक पुराना हो गया है। वो दरअसल हुआ यूँ कि हम कुछ पुराणों का अध्यन कर रहे थे।

कौनसे पुराण? अरे भाई आपको नाम तो नही बता सकते। गर्ल कोड ब्रो! पर हाँ ये ज़रूर कह सकते हैं कि उसमें क्या कहा गया है। सबसे पहले पन्ने पर हमें शपथ दिलाई गई कि हम जो पढ़ेंगे, उसकी चुगली-चपाटी लड़कियों के अलावा किसी से नही करेंगे। पर हमने बचपन से ही इतनी विद्या कसम तोड़ी है कि नतीजा ग्यारवीं के रिजल्ट से दिख गया हमको। तो बस लॉल। हाँ जी बहनजी, आगे बढ़ते हैं, पहला अध्याय कहता है कि 'हे गई दाय, (ओ बहन) वचन लो कि आजीवन वचनों से बँधी रहोगी। ख़ुद भले ही टूट जाओ, पर इन वचनों को मत तोड़ना। 

दूसरा अध्याय हमें सईंयम का पाठ पढ़ाता है और कहता है, 'गई बेटी, (हे पुत्री) वचन लो कि चाहे लोग तुम्हें मार दें, या गाड़ दें, तुम गलती से भी आवाज़ मत उठाना। जब तुम पैदा हुई थी और रोई थी, तब तुम्हारी वो रुदन ध्वनि हमें बर्दाश्त नही हुई थी। और हम तुम्हें कभी आँसुओं में नहीं देख सकते तो तुम बस खून के घूट पी लेना, (क्वाईट लिटरली!) पर हमारे सामने रोना मत।

तीसरा चैप्टर बहुत लंबा था तो हमने छोड़ दिया, हाऊ बोरिंग! पर बेसिकली हमें ये बताया गया है कि हम कैसे  समाज के, हालात के, वक़्त के, सौदागरों के, वहशियों के, और ख़ुदके कैदी बनकर इस लंबी जिंदगी को भी काट सकते हैं, बिना  हाँथ के नसों को पाँच मर्तबा काटे। सो स्वीट। काफ़ी सोच-समझ के लिखा गया था ये, है कि नहीं?

देखिये हमारा बोर्डस है इस साल, तो हम टाईम अपना यूँ आप जैसे समझदार लोगों पर खर्च नही करेंगे। आप सब संस्कारी हैं, सही मायनों में अजुकेटेड हैं। फ्रीली सेक्स की बातें करते हैं कॉज़ व्हाई नॉट, भाई हम मॉडर्न हैं, रिप्रोडक्टिव हेल्थ, हम्म हम्म, कॉपर टी, सेफ सेक्स, जैसे मुद्दों को उठाते हैं, स्टिग्मा तोड़ते हैं।  दबी आवाज़ों में अपनी आवाज़ मिला एक ऐसा शोर मचाते हैं जो चीन के दीवार को भी भेद दे पर शायद हमारे माई-बाप तक न पहुँचे। 

अच्छा? आप ऐसा नही करते? तो ठीक है, कम से कम आप अपने काम से मतलब रखकर किसी अफवाह फैलाने में सबसे आगे तो नहीं दौड़ते ना, कम से कम अपनी जिंदगी संभालते वक़्त कंधा तो देते ही होंगे उन्हें जिन्हें ज़रूरत हो। आप आगे बढ़ते वक्त पिछड़ों को साथ लेकर चलते होंगे। या शायद खाली हाथ आएँ हैं हैम, झाली हाँथ जाएँगे बालू सोच है आपकी और आप बस ख़ुदसे मतलब रखते हैं। वो भी नही?

तब तो आप ज़रूर शूटर ही होंगे मेरी जान। ये बैठे स्क्रीन के पीछे और दे दनादन फेंके शब्दों के बाण सरकार पर, मर्द जात पर, औरतों पर, यूथ पर, अपने पड़ोसी पर, उसकी बीवी पर या पति पर, या अपने घर के अन्नदाता पर, विधाता पर। कभी तो आप हाथ में कटारी लेकर अपने पेट पे लगा देते होंगे और चिल्लाते होंगे कि हाय रे आपकी किस्मत जो आप कुछ नही करते, आप समाज में रहने के लायक नही हैं। पर आप फिर भी कुछ नही करेंगे, दुनिया से अटेंशन मिल गयी  एक दफ़ा,तो आप कटारी वापस ड्रावर में रख देते हैं संभाल के। और वापस बैठ जाएँगे स्क्रीन के पीछे, स्मोकिंग किल्स वाली पोस्ट को शेयर करेंगे और छोड़ेंगे एक कश हवा में, 'फू'। खैर कोई नही।

देखिये सेक्स से याद आया (शेम-शेम पप्पी शेम), क्या ही कुलक्षण वाली बात कह दी मैंने, कई के हाथ से चाय का कप गिर गया होगा "ओह माय माता!", पापा लोग अपनी भौंह चढ़ा चुके होंगे, भाई लोग सकते में आ गए होंगे, छोटे बच्चे मुँह पर हाँथ रख कर हिहि-ठिठि करने लगे होंगे दबी आवाज़ में। वाह रे रिएक्शन! खैर, तो हाँ, सेक्स से याद आया कि फीमेल कॉन्डम का इस्तेमाल क्या मोरनी भी करती होगी? मतलब आँखों में लगा लेती हो शायद! जस्ट किडिंग! जाओ गूगल करो। अब क्या हमही बताएँ की क्या पूछोगे गूगली बहन से?

Sunday 21 May 2017

शोर और सन्नाटा

सुनो, सन्नाटे में एक आवाज़ गूँज रही है, बहुत कोशिश की मैंने कि मैं समझ सकूँ की ये आवाज़ किसकी है और क्या कहना चाह रही है। पर थक चुकी हूँ, सन्नाटे से भी और उसे चीर कर रख देने वाले इस शोर से भी।
सुनो, आज मैं रात भर जगी रही, दिन में आज इसलिए ज़्यादा सो गई थी मैं, पर न शोर हुआ न सन्नाटा। न रात हुई न सुबह। बोलो, ऐसा भी भला कभी होता है क्या कि रात आँखों से उतरते-उतरते कहीं नाभि तक पहुँच जाए तब पर भी आँखें मिंचो चिड़ियों की आवाज़ पर तो सुबह की वो पहली रोशनी तुम्हारे पलकों पर न बैठे? तुम सुन रहे हो कुछ या कहीं मैं फिरसे ख़ुदसे तो बातें नही कर रही हूँ?
आज मैं भीड़ में फ़िरसे गुम हो गयी। पहले तो परेशान हो गई थी मैं पर फिर बहुत ज़ोर की हँसी आई और मैं वहीं, सड़क के बीचों-बीच रुक कर बस हँसने लगी। तुमने मेरी आदत बिगाड़ कर रख दी थी यार। भीड़ में अचानक से मेरी उंगलियों को अपनी हथेली थामने दे देते थे तो कभी अपनी बाहों से एक बैरियर बना मुझे सिक्योर करके चलते थे। अब? अब मैं धक्के-वक्के खा कर, लुढ़क-वुढ़क कर ही सही पर पहुँच जाती हूँ जहाँ पहुँचना है पर फिर भी पिछले दो सालों से तुम तक नहीं पहुँच पाई।
सुनो, आज ये घड़ी की सुई मुझे घूर रही थी, इसी घड़ी की वजह से तुम उस रात घर से गये थे न। ये पहली चीज़ थी जिसे किसी ने हमें गिफ़्ट किया था। 'हमें', कितने खुश थे तुम।मैने कहा था तुमसे की बस बैटरी ले आओ, दो अपने बंद पड़े दिमाग के लिए और एक इस घड़ी के लिए, पर तुम जैसे तूफान को कोई कैसे समझाए की दुनिया किसी की कब और कैसे उजाड़नी है उसे। तुम चले गए।
सुनो, उस रात की सुबह बाहें फैलाकर आई थी, पर तुम नहीं लौटे। हाँ पर दुकान खुलते ही शर्मा जी ने अपने बेटे के हाँथ उसके रिज़ल्ट की ख़ुशी में मिठाई के डब्बे के साथ ये घड़ी भी भिजवा दी थी। पैसे भी नही लिए थे। उस रात दुकान में घड़ी देकर तुम कहाँ गए किसी को नही पता था। न अब है। मैंने पुलिस के पास जाना छोड़ दिया। हर महीने वो फिर भी आते हैं, मुझे 'अप-टू-डेट' करने पर उन्हें भी पता है कि सब ढकोसलेबाज़ी है, और मुझे भी।
आज जब मैं घर वापस लौटी तो कोई भी बल्ब जल नही रही थी, शायद फ्यूज़ हो गयी हो। तुम्हारी जिंदगी की तरह। बस अँधेरा था, वो फिल्मों वाला नहीं, घुप्प वाला अँधेरा। पूरा घर फिर उसी सन्नाटे में डूब गया मेरे कदम रखते ही, और गूँज रही थी बस एक आवाज़। "टिक...टिक...टिक..."। अब तुम डर मत जाना। हमेशा की तरह जैसे हॉरर मूवी के किसी क्रूशियल सीन पर डर जाते थे। और फिर अचानक से पसरे हुए सन्नाटे में एक शोर हुआ, जिसे मैं समझ नही सकी, पहचान नही सके, धीरे-धीरे वो शोर मेरे अंदर गुम हो गया, मानों की मैं कोई भीड़ हूँ और वो शोर कोई गुमनाम चहरा।
सुनो, तुम उस घड़ी की सुई में ख़ुदको अटका कर, ख़ुदको सुलझाने के बहाने, मेरी हर बात अभी भी सुनते हो न। मुझे लगता था पहले महीने से ही कि तुम इतनी आसानी से मेरा पीछा कहाँ छोड़ोगे, तुम ख़ुद नहीं लौटे तो क्या हुआ, ये घड़ी की सुई जो रुक-रुक कर चलती थी, अब ठीक होकर लौटी थी न। मैंने किसी से कहा नहीं, मुझे पागल समझते वो। अभी भी समझते हैं। तुम मेरी जिंदगी थे और तुम चले गए। मेरी जिंदगी वहीं ख़तम। ये लोग नहीं समझते। उन्हें तो ये भी नही पता कि मैं तुम्हारी जिंदगी थी और मैं हूँ। यानी तुम ज़िंदा हो, तुम्हारी जिंदगी तो अभी भी है ना दुनिया में, तो मैं जी रही हूँ। तुमने मेरी जिंदगी छीन ली, मैं मुझसे हमारी कैसे छिनूँ?